बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर
अध्याय - 2
पुरुषार्थ एवं उनके अन्तर्सम्बन्ध
(Purusarthas and their Inter-relations)
प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
अथवा
पुरुषार्थ का क्या अर्थ है? इसका महत्व भी बताइए।
अथवा
भारतीय मूल्य व्यवस्था के रूप में पुरुषार्थ का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
अथवा
पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
उत्तर -
भारतीय चिन्तन के इतिहास में पुरुषार्थ की अवधारणा अत्यन्त ही महत्वपूर्ण रही है। ज्ञान की सभी शाखाओं में अपने अधिकारों में इसे सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। प्राचीन काल में भारतीय विचारकों ने मनुष्य के जीवन को आध्यात्मिक, भौतिक और नैतिक दृष्टि से उन्नत करने के निमित्त ही पुरुषार्थ के नाम से अपने दार्शनिक और नैतिक विचारों की व्याख्या की थी। इन लोगों के अनुसार जीवन के सुख के दो आधार हैं- भौतिक एवं आध्यात्मिक भौतिक सुख क्षणिक और अस्थायी है जबकि आध्यात्मिक सुख स्थायी और सत्य है। मनुष्य अपनी शारीरिक आवश्यकताओं तथा कामनाओं की पूर्ति के लिए तत्पर रहता ही है, लेकिन इसके अलावा जीवन को संयमित, नियमित और आदर्शपूर्ण बनाना भी उसका पुनीत कर्तव्य है। अतः हिन्दू शास्त्रकारों ने यह विचार किया कि मानव जीवन में भोग और कामना का बहुत अधिक योगदान नहीं है। भौतिक सुख ही जीवन नहीं है। सांसारिक मोह माया तथा ऐश्वर्य मानव जीवन को दिग्भ्रमित करते हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य का संयमित और नियमित आचार तथा आध्यात्मिक विचार ही समुचित निर्णय देने में समर्थ होता है। अतः मानव जीवन का लक्ष्य भौतिक सुख न होकर आध्यात्मिक सुख होना चाहिए।
आध्यात्मिक वृत्तियाँ मनुष्य को सात्विक और निःस्वार्थ जीवन जीने के लिए प्रेरित करती हैं। वस्तुतः जीवन में भौतिक सुख और आध्यात्मिक सुख दोनों का महत्व है तथा दोनों का समन्वित रूप जीवन को उन्नत करता है। अतः भारतीय नीतिशास्त्र इन दोनों प्रवृत्तियों का सन्तुलित तथा समन्वित रूप है, जिसे पुरुषार्थ कहते हैं। भौतिक सुख के अन्तर्गत धर्म तथा मोक्ष हैं। पुरुषार्थ में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तत्व निहित हैं। इसके अन्तर्गत मनुष्य लौकिक उपयोग के साथ धर्म का अनुसरण करते हुए ईश्वरोन्मुख होकर मोक्ष प्राप्त करता है। हिन्दू नीतिशास्त्र के अनुसार जीवन और मृत्यु से छुटकारा पाना और ईश्वर के समीप पहुँचना ही मोक्ष है। यही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। इससे यह स्पष्ट होता है कि हिन्दू नीतिशास्त्र लौकिक की अपेक्षा पारलौकिक सुख और लक्ष्य को अधिक महत्व देता है तथा मानव जीवन को समाने रखकर आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत पुरुषार्थ को कर्तव्यनिष्ठा का सार्थक दायित्व मानता है।
पुरुषार्थ मनुष्य की उस शक्ति की ओर इंगित करता है जिससे वह पिण्ड ब्रह्माण्ड की पहचान में समर्थ होता है। क्योंकि ब्रह्माण्ड के तत्व को पहचानना ही पुरुषार्थ है। पुरुष हम उसे ही कह सकते हैं जिसमें विवेक, बुद्धि तथा संकल्प की स्वतन्त्रता निहित हो। इस अर्थ में विश्व के सभी प्राणी पुरुष नहीं माने जा सकते हैं। केवल मनुष्य ही 'पुरुष' हैं। मनुष्य में ही विवेक, बुद्धि एवं संकल्प स्वतंत्रता की भावना निहित रहती है। इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि पुरुषार्थ का सम्बन्ध विवेकशील प्राणी मनुष्य से ही है।
पुरुषार्थ का अर्थ - पुरुषार्थ शब्द दो शब्दों 'पुरुष' और अर्थ के संयोग से बना है। पुरुष विवेकशील प्राणी का सूचक है तथा अर्थ लक्ष्य का। इस दृष्टिकोण से पुरुष के लक्ष्य को हीं पुरुषार्थ कहते हैं। विश्व में प्रत्येक मनुष्य का कोई न कोई लक्ष्य अवश्य होता है जिसकी प्राप्ति के लिए सभी प्रयत्नशील रहते हैं। वह लक्ष्य जिसे प्राप्त करने की चेष्टा चेतनापूर्वक की जाती है, पुरुषार्थ है। अतः पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ है - जो मनुष्य के द्वारा चाहा जाए (What is sought by men)। यह मानवीय लक्ष्य या उद्देश्य के समान है।
हम सभी जानते हैं कि अन्य सजीव प्राणियों के समान मनुष्य भी संवेगपूर्वक कर्म करता है, लेकिन वह इच्छापूर्वक भी कर्म कर सकता है। वह चेतनापूर्वक अपने लक्ष्यों को सामने रखकर उसके लिए कर्म कर सकता है। यही चेतन प्रयास उसे पुरुषार्थ में परिवर्तित कर देता है। इस प्रकार वह लक्ष्य जिसे मनुष्य अन्य प्राणियों के साथ बांटता है (यथा भोजन एवं विश्राम ) वह भी पुरुषार्थ में रूपांतरित हो सकता है, अगर उनकी इच्छा जान-बूझकर चेतनापूर्वक की जाए। पुरुषार्थ में प्रथम तत्व 'पुरुष' का महत्व चाहे गये लक्ष्य की सीमितता नहीं है बल्कि उसे प्राप्त करने की विधि निहित है। 'अर्थ' जो पुरुषार्थ का दूसरा तत्व है, वह उस समय अस्तित्ववान नहीं रहता है जिस समय इसे प्राप्त करने योग्य जाना जाता है। इसे होना है जो अभी तक नहीं है, अतः यह प्राप्त करने वाले मनुष्य के प्रयास में निहित है, जिसकी अभिव्यक्ति प्राप्त करने योग्य मूल्य' के रूप में की जा सकती है।
मूल्य की प्राप्ति केवल मूल्य के अर्थ के ज्ञान की ही पूर्व-मान्यता नहीं है बल्कि इसकी प्राप्ति के लिए उचित एवं उपयुक्त साधन की भी पूर्व मान्यता है। कभी-कभी इस साधन को भी पुरुषार्थ कहा जाता है जो गौण और मुख्य प्रकार में अन्तर बतलाता है। जैसे धन, जो साधारणतया किसी लक्ष्य के रूप में प्राप्त किया जाता है, वह गौण मूल्य है जबकि सुख, जिसे स्वयं के लिए प्राप्त किया जाता है, वह मुख्य मूल्य है। स्पष्ट है कि पुरुषार्थ का अस्तित्व पूर्व से नहीं रहता है बल्कि यह नया उत्पन्न होता है। वास्तव में कुछ भारतीय विचारकों (आरम्भिक मीमांसक) के अनुसार कोई भी अस्तित्ववान पदार्थ मुख्य अर्थ में मुख्य या पुरुषार्थ नहीं हो सकता है। यह अधिक से अधिक केवल गौण मूल्य हो सकता है। लेकिन अन्य विचारकों के अनुसार मूल्य की प्राप्ति सदैव इस भावात्मक अर्थ में नहीं समझी जाती है। इच्छित लक्ष्य पूर्व में वही हो सकता है तथा कुछ बाधाओं के कारण वह स्पष्ट प्रतीत नहीं हो सकता है (जैसे गड़े हुए धन की अवस्था में)। यहाँ पर बाधा को दूर करने मात्र में ही प्राप्ति निहित है।
मूल्य की प्राप्ति करने के पूर्व उसमें सक्रियता या क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है। यद्यपि यह क्रियाशीलता प्रत्यक्ष रूप से लक्ष्य या मूल्य की प्राप्ति के मार्ग में रहने वाली बाधाओं को दूर करने में निहित है। इस प्रकार के मूल्यों को साध्य के रूप में वर्णित किया जा सकता है। लेकिन ऐसा वर्णन केवल निषेधात्मक या अप्रत्यक्ष अर्थ में होगा। लक्ष्य या मूल्य प्राप्ति के मार्ग का अवरोध भौतिक या शारीरिक न होकर मानसिक भी हो सकता है। जैसे अगर कोई व्यक्ति बुरी तरह अपना चश्मा खोजने में व्यस्त हो सकता है जबकि वास्तव में वह उसकी आखों पर है। यहाँ पर प्राप्ति उस भ्रम से छुटकारा पाने में निहित है जो व्यक्ति के मन में है। इस प्रकार के पुरुषार्थ को साध्य कहा जाता है, अगर ज्ञान कर्म के समान ही मूल्यों को प्राप्ति करने का साधन हो सकता है। यहाँ पर भी पहले की भाँति कुछ नया नहीं होता है बल्कि दोनों में प्राप्ति समान रूप से वस्तुओं के अस्तित्ववान अवस्था में परिवर्तन निहित है। एक में यह परिवर्तन मनुष्य द्वारा लाया गया है तथा दूसरे में यह विचार के द्वारा लाया गया है।
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- प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
- प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
- प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
- प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
- प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
- प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
- प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
- प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
- प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
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- प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
- प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
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- प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
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- प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
- प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
- प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
- प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
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- प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
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- प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
- प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
- प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?