BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

अध्याय - 2

पुरुषार्थ एवं उनके अन्तर्सम्बन्ध

(Purusarthas and their Inter-relations)

 

प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।

अथवा
पुरुषार्थ का क्या अर्थ है? इसका महत्व भी बताइए।

अथवा
भारतीय मूल्य व्यवस्था के रूप में पुरुषार्थ का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।

अथवा
पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।

उत्तर -

भारतीय चिन्तन के इतिहास में पुरुषार्थ की अवधारणा अत्यन्त ही महत्वपूर्ण रही है। ज्ञान की सभी शाखाओं में अपने अधिकारों में इसे सर्वोच्च स्थान प्रदान किया गया है। प्राचीन काल में भारतीय विचारकों ने मनुष्य के जीवन को आध्यात्मिक, भौतिक और नैतिक दृष्टि से उन्नत करने के निमित्त ही पुरुषार्थ के नाम से अपने दार्शनिक और नैतिक विचारों की व्याख्या की थी। इन लोगों के अनुसार जीवन के सुख के दो आधार हैं- भौतिक एवं आध्यात्मिक भौतिक सुख क्षणिक और अस्थायी है जबकि आध्यात्मिक सुख स्थायी और सत्य है। मनुष्य अपनी शारीरिक आवश्यकताओं तथा कामनाओं की पूर्ति के लिए तत्पर रहता ही है, लेकिन इसके अलावा जीवन को संयमित, नियमित और आदर्शपूर्ण बनाना भी उसका पुनीत कर्तव्य है। अतः हिन्दू शास्त्रकारों ने यह विचार किया कि मानव जीवन में भोग और कामना का बहुत अधिक योगदान नहीं है। भौतिक सुख ही जीवन नहीं है। सांसारिक मोह माया तथा ऐश्वर्य मानव जीवन को दिग्भ्रमित करते हैं। ऐसी स्थिति में मनुष्य का संयमित और नियमित आचार तथा आध्यात्मिक विचार ही समुचित निर्णय देने में समर्थ होता है। अतः मानव जीवन का लक्ष्य भौतिक सुख न होकर आध्यात्मिक सुख होना चाहिए।

आध्यात्मिक वृत्तियाँ मनुष्य को सात्विक और निःस्वार्थ जीवन जीने के लिए प्रेरित करती हैं। वस्तुतः जीवन में भौतिक सुख और आध्यात्मिक सुख दोनों का महत्व है तथा दोनों का समन्वित रूप जीवन को उन्नत करता है। अतः भारतीय नीतिशास्त्र इन दोनों प्रवृत्तियों का सन्तुलित तथा समन्वित रूप है, जिसे पुरुषार्थ कहते हैं। भौतिक सुख के अन्तर्गत धर्म तथा मोक्ष हैं। पुरुषार्थ में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तत्व निहित हैं। इसके अन्तर्गत मनुष्य लौकिक उपयोग के साथ धर्म का अनुसरण करते हुए ईश्वरोन्मुख होकर मोक्ष प्राप्त करता है। हिन्दू नीतिशास्त्र के अनुसार जीवन और मृत्यु से छुटकारा पाना और ईश्वर के समीप पहुँचना ही मोक्ष है। यही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। इससे यह स्पष्ट होता है कि हिन्दू नीतिशास्त्र लौकिक की अपेक्षा पारलौकिक सुख और लक्ष्य को अधिक महत्व देता है तथा मानव जीवन को समाने रखकर आश्रम व्यवस्था के अन्तर्गत पुरुषार्थ को कर्तव्यनिष्ठा का सार्थक दायित्व मानता है।

पुरुषार्थ मनुष्य की उस शक्ति की ओर इंगित करता है जिससे वह पिण्ड ब्रह्माण्ड की पहचान में समर्थ होता है। क्योंकि ब्रह्माण्ड के तत्व को पहचानना ही पुरुषार्थ है। पुरुष हम उसे ही कह सकते हैं जिसमें विवेक, बुद्धि तथा संकल्प की स्वतन्त्रता निहित हो। इस अर्थ में विश्व के सभी प्राणी पुरुष नहीं माने जा सकते हैं। केवल मनुष्य ही 'पुरुष' हैं। मनुष्य में ही विवेक, बुद्धि एवं संकल्प स्वतंत्रता की भावना निहित रहती है। इस विश्लेषण से स्पष्ट है कि पुरुषार्थ का सम्बन्ध विवेकशील प्राणी मनुष्य से ही है। 

पुरुषार्थ का अर्थ - पुरुषार्थ शब्द दो शब्दों 'पुरुष' और अर्थ के संयोग से बना है। पुरुष विवेकशील प्राणी का सूचक है तथा अर्थ लक्ष्य का। इस दृष्टिकोण से पुरुष के लक्ष्य को हीं पुरुषार्थ कहते हैं। विश्व में प्रत्येक मनुष्य का कोई न कोई लक्ष्य अवश्य होता है जिसकी प्राप्ति के लिए सभी प्रयत्नशील रहते हैं। वह लक्ष्य जिसे प्राप्त करने की चेष्टा चेतनापूर्वक की जाती है, पुरुषार्थ है। अतः पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ है - जो मनुष्य के द्वारा चाहा जाए (What is sought by men)। यह मानवीय लक्ष्य या उद्देश्य के समान है। 

हम सभी जानते हैं कि अन्य सजीव प्राणियों के समान मनुष्य भी संवेगपूर्वक कर्म करता है, लेकिन वह इच्छापूर्वक भी कर्म कर सकता है। वह चेतनापूर्वक अपने लक्ष्यों को सामने रखकर उसके लिए कर्म कर सकता है। यही चेतन प्रयास उसे पुरुषार्थ में परिवर्तित कर देता है। इस प्रकार वह लक्ष्य जिसे मनुष्य अन्य प्राणियों के साथ बांटता है (यथा भोजन एवं विश्राम ) वह भी पुरुषार्थ में रूपांतरित हो सकता है, अगर उनकी इच्छा जान-बूझकर चेतनापूर्वक की जाए। पुरुषार्थ में प्रथम तत्व 'पुरुष' का महत्व चाहे गये लक्ष्य की सीमितता नहीं है बल्कि उसे प्राप्त करने की विधि निहित है। 'अर्थ' जो पुरुषार्थ का दूसरा तत्व है, वह उस समय अस्तित्ववान नहीं रहता है जिस समय इसे प्राप्त करने योग्य जाना जाता है। इसे होना है जो अभी तक नहीं है, अतः यह प्राप्त करने वाले मनुष्य के प्रयास में निहित है, जिसकी अभिव्यक्ति प्राप्त करने योग्य मूल्य' के रूप में की जा सकती है।

मूल्य की प्राप्ति केवल मूल्य के अर्थ के ज्ञान की ही पूर्व-मान्यता नहीं है बल्कि इसकी प्राप्ति के लिए उचित एवं उपयुक्त साधन की भी पूर्व मान्यता है। कभी-कभी इस साधन को भी पुरुषार्थ कहा जाता है जो गौण और मुख्य प्रकार में अन्तर बतलाता है। जैसे धन, जो साधारणतया किसी लक्ष्य के रूप में प्राप्त किया जाता है, वह गौण मूल्य है जबकि सुख, जिसे स्वयं के लिए प्राप्त किया जाता है, वह मुख्य मूल्य है। स्पष्ट है कि पुरुषार्थ का अस्तित्व पूर्व से नहीं रहता है बल्कि यह नया उत्पन्न होता है। वास्तव में कुछ भारतीय विचारकों (आरम्भिक मीमांसक) के अनुसार कोई भी अस्तित्ववान पदार्थ मुख्य अर्थ में मुख्य या पुरुषार्थ नहीं हो सकता है। यह अधिक से अधिक केवल गौण मूल्य हो सकता है। लेकिन अन्य विचारकों के अनुसार मूल्य की प्राप्ति सदैव इस भावात्मक अर्थ में नहीं समझी जाती है। इच्छित लक्ष्य पूर्व में वही हो सकता है तथा कुछ बाधाओं के कारण वह स्पष्ट प्रतीत नहीं हो सकता है (जैसे गड़े हुए धन की अवस्था में)। यहाँ पर बाधा को दूर करने मात्र में ही प्राप्ति निहित है। 

मूल्य की प्राप्ति करने के पूर्व उसमें सक्रियता या क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है। यद्यपि यह क्रियाशीलता प्रत्यक्ष रूप से लक्ष्य या मूल्य की प्राप्ति के मार्ग में रहने वाली बाधाओं को दूर करने में निहित है। इस प्रकार के मूल्यों को साध्य के रूप में वर्णित किया जा सकता है। लेकिन ऐसा वर्णन केवल निषेधात्मक या अप्रत्यक्ष अर्थ में होगा। लक्ष्य या मूल्य प्राप्ति के मार्ग का अवरोध भौतिक या शारीरिक न होकर मानसिक भी हो सकता है। जैसे अगर कोई व्यक्ति बुरी तरह अपना चश्मा खोजने में व्यस्त हो सकता है जबकि वास्तव में वह उसकी आखों पर है। यहाँ पर प्राप्ति उस भ्रम से छुटकारा पाने में निहित है जो व्यक्ति के मन में है। इस प्रकार के पुरुषार्थ को साध्य कहा जाता है, अगर ज्ञान कर्म के समान ही मूल्यों को प्राप्ति करने का साधन हो सकता है। यहाँ पर भी पहले की भाँति कुछ नया नहीं होता है बल्कि दोनों में प्राप्ति समान रूप से वस्तुओं के अस्तित्ववान अवस्था में परिवर्तन निहित है। एक में यह परिवर्तन मनुष्य द्वारा लाया गया है तथा दूसरे में यह विचार के द्वारा लाया गया है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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